आजादी बलिदान मांगती है...
स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मजात अधिकार है और इस सत्य को मानव के प्राकृतिक स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर कहा जाए तो केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि जीवमात्र का अधिकार है कि वह स्वतंत्र रहे। पर यह अधिकार कर्तव्य के पेट से पैदा हआ होना चाहिए, और इस भावना के साथ पला और बढ़ा हुआ भी होना चाहिए कि आजादी पर किसी एक का नहीं, बल्कि हर एक का समान रूप से हक है।
जब हम अपनी आजादी की बात करते हैं तो हमें दसरों की आजादी के बारे में भी न सिर्फ सोचना चाहिए, अपितु प्रयास करना चाहिए कि हम उनकी आजादी की भी गारंटी दे सकें। अपनी शारीरिक, वैचारिक और सीमागत् स्वतंत्रता की चिंता करते समय हमें पट्टे से बंधे कुत्ते, पिंजरे में बंद तोते, एक्वेरियम में तैरती मछली और बाडे में कैद शेर के बारे में भी विचार अवश्य ही करना चाहिए। खूटे से बंधी गाय-भस, बकरिया, नकेल डले ऊट, लगाम कसे घोडे और माथे पर शल का वार सहते गजराज की स्वतंत्रता के बारे में भी विचार करना बहुत ही जरूरी है। आजादी तन से ज्यादा मन और चिंतन का विषय है
'आजादी' शब्द में जो सुकून है, वह - और किसी शब्द में नहींआपके पास सबकुछ हो, बस आजादी ही नहीं हो, तब आप कैसा महसूस करेंगे। आजादी सब वस्तुओं से अधिक मूल्यवान और परम आनंद की अधिष्ठात्री है। यही स्वर्ग है, और यही उत्तम भोग भी। यही 'प्रिय स्वतंत्र रव' है। इसी 'अमृत मंत्र नव' को ही ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोर पूरे भारतवर्ष के आत्म तत्व में भर देना चाहते थे। बाबा तुलसी ने स्वतंत्रता की आवश्यकता बताते हुए लिखा है -“पराधीन सपनेहुँ सुख नाहिं" मेवाड़ की रक्षा और उसके सम्मान के लिए आजीवन लड़ने वाले महाराणा प्रताप ने कहा था- “गुलामी के पकवानों से आजादी की घास की रोटी अच्छी।" भारत की आजादी के वैश्विक प्रयास करने वाले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था- "तुम मुझे खून दो-मैं तुम्हें आजादी दूंगा।" ठीक इसी तरह दिवंगत वरिष्ठ साहित्यकार दादा राजेन्द्र अनरागी जी ने एक बार मुझे ऑटोग्राफ देते हुए लिखा था- “मुफ्त में आजादी मिलती नहा ह दास्ता, मुल्क जा आजाद हात ह, लहु के मोल होते हैं।" कहने-समझने की __ बात यह है कि- आजादी के लिए सर्वस्व बलिदान भी करना पड़े तो सहर्ष कर देना चाहिए L
आजादी... आजादी... आजादी... अंग्रेज सेना के विरुद्ध उसके सैनिक अंग्रेज सेना के विरुद्ध उसक सानक मंगलपांडे ने सबसे पहले बागी के रूप में आलेख : राजेश सत्यम् अपना नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज कराया। मेरा सौभाग्य है कि उनकी वंशज गीता पांडेय 'गीतांजलि' के संपर्क में कुछ समय मैं भी रह पाया, और इसी बहाने मैं भी भारत की आजादी के प्रथम सैनानी से अपना रिश्ता महसूस कर पाता हूं। 1857 से लेकर 1947 तक का 90 वर्षों का ही सफर भारत के आत्मोत्सर्ग का बखान करता हो, बस ऐसा नहीं है। अंग्रेजों के भी पहले बर्बर मुगल लुटेरों से लड़कर देशाभिमान की रक्षा करने वाले लोगों के त्याग, तपस्या और बलिदान की हजारोंलाखों कहानियां समरांगण में जन्मीं हैं।
महारानी पद्मावती. हाडा रानी रानी लक्ष्मी बाई रानी दर्गावती रानी चैनम्मा. कंवर चैनसिंह जोरावर सिंह बख्तावर सिंह और सिक्ख गरुओं की परी बलिदानी परंपरा से लेकर वीर हकीकत राय बंदा बैरागी. टंट्या भील. चंद्रशेखर आजाद. समस्याट बिस्मिल भगत सिंह राजगा अश्फाक उल्ला खान, वीर सावरकर, चाफेकर बंध. गोवा मक्ति आंदोलन के शहीद हेमू कालाणी सहित ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की सिगडी चेताने के लिए खद के प्राणों को कोयला और 'वंदे मातरम' और 'जय हिन्द' से शब्दों को धोंकनी बना दिया।
भारतमाता की परतंत्रता की बेड़ियां काटने में जिन विचारवान लोगों की तपस्या का तेज शामिल रहा उनमें स्वामी विवेकानंद स्वामी दयानंद सरस्वती ईश्वरचंद्र विद्यासागर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, संघ प्रणेता डॉ. केशवराव बलिराम , हेडगेवार, महर्षि अरविन्द, महात्मा गांधी, आचार्य विनोबा भावे जैसे अनगिनत लोगों के योगदान का भी स्मरण करना न सिर्फ जरूरी है. बल्कि हमारा कर्तव्य भी है। ज आजादी सब के लिए. सब के प्रयाससे आई थी। किसी का योगदान कम और ज्यादा हो सकता है क्योंकि प्रयास यथा शक्य ही होता है, और होना भी यथा शक्य ही चाहिए, परंतु गुलामी की बेड़ियां काटने के लिए अंगारे तो सभी के मन में एक समान ही तेजी के साथ धधक रहे थे। इस आंच को हम आज भी बराबर महसूस कर पा रहे हैं। चाहे 15 अगस्त और 26 जनवरी को ही सही।
__ क्या प्रचंड आग थी वह... जिन्हें अपने साम्राज्य में कभी सूरज न डूबने का दंभ था उन्हें रातों-रात अपना बोरिया-बिस्तर समेटकर भागने को मजबूर होना पड़ा था। आजादी की दुल्हन की डोली हमारे आंगन में आखिरकार उतर ही आई, पर इसकी कितनी और क्या कीमत चुकानी पड़ी, हम तो शायद उसका अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। यह तो हमारे पूर्वजों का हम पर उपकार है, जिसे हमको 'पितृऋण' मानकर उसे चुकाने का प्रतिपल प्रयास करना होगा और यह होना चाहिए अपनी आजादी की रक्षा के प्रयास के रूप में। हम अपनी आजादी को बचाकर रख पाए तो शायद हम भी अपने बच्चों के लिए आदर्श बन पाएंगे।
गलामी केवल भौगोलिक या राजनैतिक ही नहीं होती. बल्कि यह सांस्कृतिक, आर्थिक या अन्य किसी रूप में भी हो सकती है। मशीनों पर निर्भरता भी एक प्रकार की गुलामी है, और अपने स्वार्थों का मोह न छोड़ पाना भी एक प्रकार से परतंत्र होना ही है। विदेशी भाषा, भाव और भोग का अंधानुशरण भी गुलामी ही तो है। इंटरनेट, गूगल, फेसबुक और व्हाट्सअॅप के बगैर एक पल भी नहीं रह पाने की लत क्या हमारी गलामी का प्रतीक नहीं है। यह हमारी मानसिक गुलामी का ही एक प्रतीक है। स्वदेशी से नफरत और विदेशी से प्रेम क्या हमारी मानसिक कमजोरी और राष्ट्रप्रेम में कमी का द्योतक नहीं है15 अगस्त 1947 को मिली राजनैतिक आजादी अधरी है, क्योंकि इस आजादी के बावजूद अपना देश आर्थिक रूप से गुलाम रहा है। हमारे संसाधन और धन हमेशा दूसरों के काम ही आए परंतु पतंजलि उत्पादों की श्रृंखला के माध्यम से योग गुरु बाबा रामदेव ने देश की आजादी का जो बीड़ा उठाया है वह हमारे बेहतर और सशक्त भविष्य के पथ पर मील का पत्थर साबित होगा। पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सक्षमता, सीमा सुरक्षा, आंतरिक शांति, समान अधिकार, समान कानून और प्रत्येक नागरिक के मन में अपने राष्ट्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा, समर्पण और प्रतिबद्धता के भाव के स्वतः स्फूरण के गर्भ से ही यह वास्तविक और पूरी आजादी जन्म ले सकेगी। उम्मीद रखने के साथ ही इस दिशा में भरसक प्रयासों की सतत् आवश्यकता है। आज देश के लिए मर-मिटने की नहीं बल्कि एक अकेले उसी के लिए ही जीने का भाव मन में जगाने की आवश्यकता है। जिन लोगों ने देश के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया उनकी मूर्तियां चौक-चौराहों पर लगे या न लगे परंतु हमारे मन मंदिर में अवश्य ही प्रतिष्ठित होना चाहिए। यह हृदयंगम छबियां ही हमारी आजादी का वचनपत्र होंगी I
यहां एक बात और याद रखने की है, और वह यह कि- जेएनयू और कश्मीर की गलियों और चौक-चौराहों पर लगने वाले 'आजादी' के नारे, कन्हैया कुमार और रोहित वैमूला जैसे लोगों की दलीलें और मानवाधिकार के नाम पर मोमबत्ती हाथ में लिए धंधेबाजों के गोरखधंधे कभी भी आजादी की वास्तविक आवाज नहीं हो सकती। क्योंकि कश्मीर मांगे आजादी' के स्वर के साथ ही 'भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह-इंशा अल्लाह' का देशद्रोही मंसूबा छिपा हुआ है। अल्पेश
अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटैल, किरोड़ीमल बैंसला, अरविन्द केजरीवाल. मनीष सिसोदिया जैसे लोगों की पृष्ठभूमि में आजादी, समानता, और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की तड़प नहीं बल्कि अवसरवाद की ही घनी और काली छाया दिखाई देती है जो जिन्ना और नेहरू की नीतियों की ही प्रतिछाया है। सत्ता और स्वार्थ के इसी इंद्रजाल से कभी गांधी तो कभी अन्ना जैसे संत न केवल सिर्फ छले गए बल्कि उन्हें कटु टिप्पणियों का शिकार भी होना पड़ा। बगुला भक्तों की जमात को जब तक हम बाहर का रास्ता नहीं दिखा देते तब तक मानसरोवर में कमल खिलने की उम्मीद कम ही है।
सेक्यूलर ताकतों के नाम पर देशद्रोही और फर्जी लोगों की बडी जमात ने इस देश का वर्षों तक नुकसान किया है। क्या हम दीमक को आजादी दे सकते हैं कि वह हमारी गौरव प्रतिमा को खोखला व क्या हम दो-दो टके के भाडे के लोगों को आजादी दे सकते हैं कि वे हमारी ईज्जत की चनर को तार-तार कर दे। क्या हम किसी चोर को चोरी करने, लुटेरे का लूटने और हत्यारे को हत्या कर देने की छट दे सकते हैं। क्या हम किसी ऐरे गैरे नत्थु खैरे को अपनी भावनाओं के साथ खेलने की आजादी दे सकते हैं। क्या हमें मनचलों को छूट दे दी जानी चाहिए कि वे आम रास्ते पर स्कूल-कॉलेज जाती लड़कियों और ऑफिस, बाजार या मंदिर जाती महिलाओं का जीना दूभर कर दें। इन सब प्रश्नों का एक मात्र उत्तर है- नहीं, नहीं, नहीं! और इसका एक मात्र कारण यह है कि'आपकी आजादी की सरहद वहीं समाप्त हो जाती है, जहां से दूसरे की शुरू होती है।'
आईए इस 15 अगस्त के दिन हम अपनी संपूर्ण स्वतंत्रता का परचम लहरा कर भारत माता को विश्व पटल पर स्थापित कर परमपद पर बैठाने का शुभ संकल्प लें.. .I