आलेख
शरीर और आत्मा
परिचय आत्मा के ज्ञान की आवश्यकता- मनुष्य के सभी दु:खों और चिंताओं का मुख्य कारण है अपने वास्तविक स्वयं को न जाननाआज मनुष्य स्वयं को मात्र शरीर अथवा शरीर को ही स्वयं समझता है । वह यह नहीं जानता कि वह एक अविनाशी सत्ता है, जिसे आत्मा कहते हैं और वही शरीर में रहते हुए इसके माध्यम से कार्य करती है । आत्मा के विषय में मनुष्य के अज्ञान का परिणाम यह होता है कि जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण देह-अभिमान युक्त भौतिक और सांसारिक सा होता है। वह अपने जीवन की वर्तमान परिस्थितियों को बेहतर बनाने के पुरूषार्थ में तो जाता है किन्तु पहले यह समझे बिना ही कि दो व्यक्तियों की परिस्थितियों तथा वातावरण में जन्म के समय से ही महान अंतर क्यों होता है? वह यह भी देखता है कि कइयों के जीवन के हर मोड़ पर सफलता कदम चूमती है जबकि दूसरों के भरसक पुरुषार्थ के बावजूद भी वह इनसे कोसों दूर रहती हैअकाल-मृत्यु को देखकर भी वह बौखला जाता है ।यह भय कि उसका सब कुछ जो उसे प्रिय है, मृत्यु द्वारा किसी भी क्षण छिन जाएगा उसके अचेतन को बराबर कचोटता रहता है। प्राकृतिक आपदाओं द्वारा तथा युद्ध से व्यापक स्तर पर होने वाले कष्ट और हानि भी उसके विवेक में प्रश्न चिन्ह उत्पन्न कर देते हैं। ऐसी घटनाएं और विचार उसे कभी न कभी यह सोचने को मजबूर करते हैं कि ये सब कुछ अकस्मात या भाग्य के अनुसार ही होता है या किन्हीं निश्चित नियमों के आधार पर। जब तक जीवन के इन मूल तथ्यों को यथार्थ रीति से नहीं समझा जाता देह अभिमान युक्त दृष्टिकोण बना रहता है। जैसे कि एक साधारण मनुष्य यह समझता है कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर घूमता है जबकि वास्तविकता इसके बिलकुल विपरीत हैइसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में गलत मूल्यों को अपना लेता है जिसके परिणाम स्वरूप वह गलत काम यानि विकर्म करता रहता है और अंततोगत्वा दुःखी होता रहता है। यह कारण है कि सभी प्रयत्नों के बावजूद भी वह स्वयं को शोक, दुःख, अशांति और पीड़ा से नहीं बचा पाता। अतः शांतिपूर्ण, संतुष्ट एवं सुखी जीवन बिताने के लिए स्वयं' अर्थात् आत्मा के बारे में यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है।
आप कौन हैं ? - मनुष्य के स्वयं के संबंध में अज्ञान का पता उन विविध उत्तरों से लगता है जो पूछने पर दिये जाते हैं कि आप कौन हैं? कुछ अपने शरीर का नाम लेते हैं (यद्यपि मनुष्य, जैसा हम बाद में देखेंगे, केवल एक हड्डी मांस का पुतला ही नहीं है) कुछ अपना व्यवसाय यथा डॉक्टर, वकील, व्यापारी आदि बताते हैं, हालांकि हम जानते हैं कि कोई व्यवसाय प्रारंभ करने से पूर्व भी एक व्यक्ति का अस्तित्व होता है और व्यवसाय को छोड़ देने के बाद भी अस्तित्व बना रहता है। कुछ अन्य है जो अपना परिचय अपनी जाति, लिंग या राष्ट्रीयता के रूप में देते हैं जैसे कि - मैं नीग्रो हूं, स्त्री हूं, भारतीय हूं आदि। ये सभी आप कौन हैं? प्रश्न के गलत उत्तर हैं क्योंकि ये वक्तव्य या तो शारीरिक रूप रेखा की ओर या संबंधित व्यक्ति के राष्ट्र की ओर इंगित करते हैं___मैं और मेरा- इस मूल प्रश्न का सही उत्तर यह है कि मैं एक आत्मा हूँ। शरीर और आत्मा के अंतर को मैं और मेरा इन दो शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट किया जा सकता
आत्मा शरीर के द्वारा कार्य करती है - मैं और मेरा जो सर्वनाम है, वे क्रमशः आत्मा नामक विचारशील चैतन्य शक्ति अथवा सत्ता और शरीर नामक अविचारशील जड़ पुतले जिसके द्वारा आत्मा कार्य करती है के लिए प्रयोग होते हैं । जैसे दूरभाष द्वारा बोलने और सुनने वाले अन्य व्यक्ति का अस्तित्व दूरभाष यंत्र से भिन्न होता है वैसा ही आत्मा का अस्तित्व शरीर में भिन्न है। आत्मा तथा शरीर का संबंध ड्राइवर एवं मोटर के दृष्टांत द्वारा सहज ही समझा जा सकता है। जिस तरह ड्राइवर का अपना अस्तित्व उसकी कार से बिल्कुल अलग होता है उसी तरह आत्मा का शरीर से बिलकुल अलग अस्तित्व है। जैसे मोटर में बैठकर ड्राइवर उसे चलाता है वैसे ही आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है। मोटर चाहे कितनी ही कीमती क्यों न हो, यदि उसका चालक अच्छी तरह मोटर चलाना नहीं जानता तो उससे है। दोनों के अर्थ भिन्न-भिन्न हैंमैं शब्द आत्मा की ओर इंगित करता है और मेरा आत्मा के अधिकार की वस्तुओं की ओर संकेत करता है। शरीर इन वस्तुओं में से एक हैमान लीजिए आप एक झोपड़ी में रहते हैं। आप यही कहेंगे : यह मेरी झोपड़ी है यह नहीं कहेंगे मैं एक झोपड़ी हूँ। इसी प्रकार अपने शरीर के विभिन्न अंगों के लिए भी आप यही कहते हैं कि मेरी नाक, मेरे हाथ, मेरी आंखें आदि और समूचे शरीर के लिए मेरा शरीर। आप शरीर नहीं है अपितु शरीर आपका हैदूसरे शब्दों में शरीर एक कुटिया है जिसमें आत्मा निवास करती है। यह सरल वाक्य कि मैं एक आत्मा हूं और जिस शरीर में रहती हूं वह मेरा अस्थायी ठिकाना है आत्मा और शरीर के भेद को स्पष्ट कर देता है
आत्मा शरीर के द्वारा कार्य करती है - मैं और मेरा जो सर्वनाम है, वे क्रमशः आत्मा नामक विचारशील चैतन्य शक्ति अथवा सत्ता और शरीर नामक अविचारशील जड़ पुतले जिसके द्वारा आत्मा कार्य करती है के लिए प्रयोग होते हैं । जैसे दूरभाष द्वारा बोलने और सुनने वाले अन्य व्यक्ति का अस्तित्व दूरभाष यंत्र से भिन्न होता है वैसा ही आत्मा का अस्तित्व शरीर में भिन्न है। आत्मा तथा शरीर का संबंध ड्राइवर एवं मोटर के दृष्टांत द्वारा सहज ही समझा जा सकता है। जिस तरह ड्राइवर का अपना अस्तित्व उसकी कार से बिल्कुल अलग होता है उसी तरह आत्मा का शरीर से बिलकुल अलग अस्तित्व है। जैसे मोटर में बैठकर ड्राइवर उसे चलाता है वैसे ही आत्मा भी शरीर में रहकर उसका संचालन करती है। मोटर चाहे कितनी ही कीमती क्यों न हो, यदि उसका चालक अच्छी तरह मोटर चलाना नहीं जानता तो उससे दुर्घटनायें होंगी। इसी तरह यदि मनुष्य को आत्मा और शरीर की कार्यविधि का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा तो उसके जीवन में दुर्घटनायें होती रहेंगी। जिसके फलस्वरूप वह दु:खी होता रहेगा। वास्तव में आत्मा ही शरीर के द्वारा अपने सारे क्रियाकलाप करती है। शरीर और उसके अवयव तो माध्यम या संवाहक मात्र हैं जो आत्मा के आदेशों का पालन करते हैं। उदाहरणार्थ मुख अपने आप नहीं बोलता, आत्मा ही शरीर के मुख-रूपी अंग के द्वारा बोलती है। इस प्रकार आत्मा ही शरीर के द्वारा देखती, सुनती, बोलती, अनुभव करती तथा सभी कार्य करती है ये कार्य दृष्टि, ध्वनि, वाणी, गंध और स्पर्श इन पांच अनुभूतियों के माध्यम से निष्पन्न यह सोचने को मजबूर करते हैं कि ये विकर्म करता रहता है और अंततोगत्वा सब कुछ अकस्मात या भाग्य के दुःखी होता रहता है। यह कारण है कि अनुसार ही होता है या किन्हीं निश्चित सभी प्रयत्नों के बावजूद भी वह स्वयं नियमों के आधार पर। जब तक जीवन को शोक, दुःख, अशांति और पीड़ा से के इन मूल तथ्यों को यथार्थ रीति से नहीं नहीं बचा पाता। अतः शांतिपूर्ण, संतुष्ट समझा जाता देह अभिमान युक्त एवं सुखी जीवन बिताने के लिए स्वयं' दृष्टिकोण बना रहता है। जैसे कि एक अर्थात् आत्मा के बारे में यथार्थ ज्ञान साधारण मनुष्य यह समझता है कि सूर्य होना आवश्यक है। पृथ्वी के चारों ओर घूमता है जबकि आप कौन हैं ? - मनुष्य के स्वयं वास्तविकता इसके बिलकुल विपरीत के संबंध में अज्ञान का पता उन विविध हैइसी प्रकार मनुष्य अपने जीवन में उत्तरों से लगता है जो पूछने पर दिये किये जाते हैं
ये अनुभूतियां मस्तिष्क के द्वारा संदेशों को ग्रहण तथा संप्रेषित करते हुए अपने संबंधित अंगों द्वारा कार्य करती हैं। आत्मा शरीर की सहायता से विचार, निर्णय, आयोजन, स्मरण तथा पहचानने का कार्य करती है। जीवन के कई अनुभव यथा सिर के बालों के पकने या झड़ने का अप्रिय लगना अथवा शारीरिक रोगों के कारण कई इच्छाएं पूरी न हो सकने पर मनुष्य का खीझना इत्यादि भी आत्मा के शरीर से भिन्न होने के द्योतक हैं