अकर्मण्यता से कर्मयोग : विकास एक अन्तर्दष्टि

अकर्मण्यता से कर्मयोग : विकास एक अन्तर्दष्टि 


विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हैजो कल था उसमें कुछ अच्छा जोड़कर इसे नया बनाकर दिखाना यही विकास है। मानव जब से अपनी बुद्धि को पहचानकर इसका प्रयोग करने लगा तभी वह मानसिक रूप से विकसित हो रहा है। चार पैरों पर चलने वाला मनुष्य दो पैरों पर खड़ा होकर चलने लगा ये शारीरिक ' विकास तो है ही पर बुद्धि का इस्तेमाल करने से ये शारीरिक विकास सफल हो गया।


__ आज से 200 साल पहले के दिनों पर नजर डालें तो सिर्फ राजा महाराजाओं के पास ही कीमती वस्त्र, आलीशान मकान, सुख सुविधा होती थी। आज सामान्य आदमी वातानुकूलित घर कार, फर्नीचर, फ्रीज इन साधनों का सुख ले सकता है। 50-60 साल पहले मोबाइल, कम्प्यूटर नहीं थे। जब कि आज अतिसामान्य व्यक्ति भी जैसे रिक्शा चालक, घर में काम करने वाली औरत, मजदूर, सब्जी बेचने वाला, इस विज्ञान की खोज से अपना जीवन आसान बना रहा हैI


ये विकास ज्यादातर मनुष्य का जीवन आसान बनाता है उसके जीवन का स्तर बढ़ाता है। पर विज्ञान का विकास का एक और पहल है जो मनुष्य को शारीरिक तौर से कमजोर बनाता है और उसके जीवन में अशांति, बेचैनी, स्वार्थीपन लाकर शारीरिक, मानसिक बीमारी भी लाता हैभारतीय और भारतीय संस्कृति I


हम भारतीय और भारतीय संस्कृति हमेशा ही भोग से ज्यादा न्याय और शांति के गुण गाती हैंहमारे सनातन, हजारों वर्ष पुराने वेद ग्रंथ, पुराणों ने कथा, ललित लेखन ने शारीरिक विकास को कम महत्व देकर, मानसिक, वैचारिक विकास को ज्यादा महत्व दिया है। इनमें से सबसे महत्वपर्ण ग्रंथ है. श्रीमद भगवत गीता' जिसे हम गीता बलाते हैं जिसने वैचारिक विकास से अर्जन के जीवन में क्रांति लायी।


महाभारत की कथा तो सर्वज कही गयी है। धृतराष्ट्र पुत्र कौरव और पांड पत्र पांडव के ईर्ष्या, प्रेम, शत्रुता, छल, कपट की यह महागाथा में दुनिया का एक भी विषय अनछुआ नहीं हैI


धृतक्रीड़ा के अपमान और हार के बाद पांडवों को दंड के तौर पर बारह साल का वनवास और एक साल का अज्ञातवास भोगना पड़ा। तेरह साल बाद पितामह भीष्म, शांतिदूत बने श्रीकष्ण और महाजानी विदुर के लाख समझाने पर भी हठी दुर्योधन ने पांडवों को उनका हक देने से इनकार किया, तो कौरव-पांडव महायुद्ध होना अटल हो गया।


ज्योति चेडे, पवई मुंबई पांडव यद्यपि युद्ध नहीं चाहते थे, पर युद्ध की संभावना देखकर अपने वनवास के काल में अपने आपको युद्ध के लिये तैयार कर रहे थे। पांडवों के मुख्य योद्धा महापराक्रमी वीर धनुर्धारी अर्जुन ने अलग-अलग देशों में जाकर शस्त्र-अस्त्र हासिल किये। पथ्वी पर ही नहीं तो स्वर्ग में जाकर उन्होंने युद्ध कला सीखी। ऋषि मुनि गुरू इनकी सेवा करके दुर्लभ युद्धविद्या प्राप्त किये।


____ अर्जुन जिसने अपनी धनुर्विद्या से कठिन प्रण जीतकर द्रौपदी को पाया था वही द्रौपदी के एक-एक खुले बाल उसे द्रौपदी के अपमान और प्रतिज्ञा का हर पल स्मरण कराता था। श्रीकृष्ण भगवान का साथ और सामर्थ्य अर्जुन का प्रण और साहस युद्ध जीतने का दृढ़ विश्वास और भी मजबूत करता था। और यही अर्जुन ने जब शत्रुपक्ष में अपने पितामह, गुरू, भ्राता, बंधु सखा पुत्रपौत्र, आचार्य इन लोगों को देखा तो गलितगात्र हुआ। सीदंती मम गात्राणि, मुख च


सीदंती मम गात्राणि, मुख च परिशुष्यति।'


और बोला, मेरे सारे अंग शिथिल हो रहे हैं। मुख सूखा जा रहा है। गांडीव स्त्रंसते, भ्रमतीव च मे मनः।' मेरा गांडीव धनुष मेरे हाथ से गिर रहा है। मेरा मन भ्रमित हो रहा है। 'न योत्स्य' मैं युद्ध नहीं करूंगा। ऐसे हतोत्साही अकर्मण्यता से भरे गलीतगात्र अर्जुन को कर्म के पथ पर लाने खड़ा करना और अर्जुन से बुलवाना। 'नष्टो मोहः स्मतिलब्धा' यही भगवतगीता का सार और श्रीकृष्ण भगवान की महानता है। श्री कृष्ण ने अर्जुन का वैचारिक विकास किया और उसे कर्म त्यागी से कर्मयोगी बनाया। श्री कष्ण ने गीता के अठारह अध्यायों में से पूरे तीन अध्याय कर्म की संकल्पना को अर्पित किये हैं। कर्म योग अध्याय तीसरा ज्ञान कर्म संन्यास योग अध्याय चौथा कर्म संन्यास योग अध्याय पांचवा।


भगवान अर्जुन को कर्म महत्ता समझाने की प्रक्रिया दूसरे अध्याय से ही प्रारंभ होती है। अर्जन के मानसिक विकास का आरंभ भगवान इस प्रसिद्ध श्लोक से करते हैं. जिसे गीता का सार माना गया है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्म फल हेतुर्भूर्मा मे संगोऽस्त्व कर्मणि। तेरा कर्मों में ही अधिकार है, उनके और फलों में कभी नहीं। इसलिये त कर्मो के फल की वासना वाला मत हो तथा तेरी कर्म न करने की भी आसक्ति न हो।


इस प्रसिद्ध श्लोक में भगवान सिर्फ कर्म करने का उपदेश देते हैं। दुनिया भर के विचारक, ज्ञानी, पंडितों ने इस श्लोक पर पंडितों ने दस लोकपा विचार प्रकट किये हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कर्म करके एक विशेष फल या मनचाहा फल मिलने का आग्रह मत करे। यह आग्रह ही कर्म करने वाले के विकास में अडचने पैदा करता हैकर्म करना यही सबसे बड़ा उपहार और पुरस्कार है। श्रीकृष्ण आगे कहते हैं : 'न हि कश्चितक्षणमपि ज्ञातु निष्ठत्यकर्मकृत। कोई भी मनुष्य कर्म किये बिना एक क्षण भी रह नहीं सकता। यहां एक प्रश्न उठता है यदि कोई आदमी एक जगह बिना हिले डले स्तब्ध बैठा हो तो वह क्या कोई कर्म नहीं कर रहा है? उसका उत्तर है वह व्यक्ति बैठा है तो बैठना भी तो कर्म ही है। इसका शरीर कर्म नहीं कर रहा है पर उसका मन जो की उसके व्यक्तित्व का एक हिस्सा है वह तो कर्म कर रहा है उसके मन में विचार, भावना आना यह भी तो कर्म ही है। दूसरा उसके आतंरिक इंद्रीय तो कर्म कर रहे हैं। उसका श्वास उच्छवास चल रहा है। अन्न पाचन का कार्य चल रहा है तो कोई भी जीवित व्यक्ति प्राणी कर्म किये बिना एक क्षणभर नहीं रह सकता।


यह अर्जुन का प्रश्न है कर्म करना ही है तो कौन सा कर्म कर? भगवान कहते हैं कर्म का अभ्यास करके कर्म कर। कौन सा कर्म किसके लिये सही है ये समझकर कर्म कर। 'नियतं करु कर्म त्वं कर्म ज्यायो हय कर्मणः' __ हे अर्जुन तू शास्त्रविहीन कर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा नियत कर्म क्या करना श्रेष्ठ है। अब नियत याने शास्त्रविहीन कर्म क्या है? क्या सब मनुष्य के लिये एक जैसे कर्म नियत कर्म है? इस प्रश्न का उत्तर भगवान देते हैं -


'स्वकर्मणा तमभ्यचर्य सिद्धि विन्दति मानवः। स्वकर्म से मेरी याने की परमात्मा की पूजा करके मनुष्य विकास की सिद्धि प्राप्त करता है। अब 'स्वकर्म' क्या है? विद्यार्थी के लिये अध्ययन स्वकर्म है तो क्षत्रिय के लिये धर्मयद्ध ही स्वकर्म से परमात्मा की पजा है। ऋषि, मनि, ज्ञान के द्वारा परमात्मा को पूजते हैंराजा जनक ने राज्य पालन करके उसे पूजा। पूजा की सामग्री एक समान हो यह आवश्यक नहीं है जरूरी है हृदय के भाव।


अब भगवान कर्म का एक अतिशय सरल सिद्धांत बताते हैंयपि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्म चेतसा। हे अर्जुन याने हे मानव, सब कर्म त कर, ममता रहित, आशारहित रह के और मुझे अर्पण कर।


यदि यह भगवान का उपदेश हम सब मन में मानकर कर्म करें तो हमें सफलता विकास के मार्ग से चलने से कोई नहीं हो कर्म कर्मफल त्याग के इस उपदेश को अपने जीवन में उतारना यह तो भारतीय परंपरा है। आज के आधुनिक युग में कई महापुरुषों ने यह सिद्ध किया है कि श्री कृष्ण भगवान का कर्म, कर्म फलत्याग का सिद्धांत अपनाने से कठिन से कठिन कार्य करने में मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। स्व. मोतीलाल नेहरू जिन्होंने अपना सारा जीवन, राजशाही था और अमीरी में गुजारा था अपनी सारी संपत्ति हिंदुस्तान के स्वतंत्रता संग्राम के लिये दान दे दी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी अपना सारा जीवन भारत को स्वातंत्र्य दिलाने में न्योछावर कर दिया। वे महात्मा जिसकी वजह से भारत स्वतंत्र हुआ।गीता के शब्दों में गांधी जी को कर्मफल मिला, 'स्वतंत्रता' के रूप में, तब यह महात्मा वह कर्मफल का त्याग करके वहां सेवा कर रहा था, जहां दंगल से पीड़ित लोग कराह रहे थे। गीता का सही अर्थ तो उन्होंने ही जाना।


बाबा आमटे, अब्दुल कलाम आज के युग में कई सामान्य आदमी जो प्रसिद्धि की फेरों से परे रहकर समाजसेवा कर रहे हैं, जिनका नाम भी कोई नहीं जानता वे भी तो गीता के कर्मयोगी हैं। ये मनमना महानुभाव 'मा फलेषु कदाचन' ये भगवद्गीता का वचन अपने जीवन का मंत्र बनाकर समाज और अपने आपको धन्य कर रहे हैं। मानव जीवन की इतिश्री इसी में है कि अकर्मण्यता से कर्म के इस सफर को ही विकास का सफर समझकर अनायास ही भगवद गीता को अपना रहे हैंI