आओ सम्मानित जीवन जी लें


आध्यात्मिकता के मार्ग में संघर्ष से पार होने के प्रयत्न को ही पुरूषार्थ कहा जाता है। पुरूषार्थी को चिन्ता इस बात की नहीं होती कि अन्य कोई उसके लिये द्वन्द अथवा संघर्ष का वातावरण पैदा करता है। बल्कि उसकी कोशिश यह होती है कि वह स्वयं उस दलदल में न फंसे और यदि हो सके तो दूसरे को भी उससे निकाले। वह इस बात से व्याकुल नहीं होता कि दूसरा कोई उसका मुकाबला करता है अथवा उसकी निन्दा करके उसके व्यक्तित्व को अज्ञात आघात पहुंचाता है बल्कि उसका प्रयत्न यह होता है कि उसका अपना मन स्थित रहे, वाणी निर्मल बनी रहे और सद्भावना में अंतर न आए उसकी कोशिश यह होती है कि वातावरण प्रदूषित न हो और दूसरों को देखने या सुनने को बुराई न मिले बल्कि संसार में अच्छाई फैले प्रीति बढ़े और सद्भावना से वातावरण सुगंधित हो वह सोचता है कि मर्यादा भंग न हो, अनुशासन न टूटे, पवित्रता पर अपवित्रता हावी न हो और आसुरी तत्वों को बढ़ावा न मिले वरन् सदाचार, पवित्रता और सात्विकता की जय जय कार हो और वातावरण ऐसा बने कि जिसमें चहुं ओर प्रसन्नता की लहर दौड़ उठे, सबके मन हर्ष से खिल उठे, सबमें 'भ्रातृत्व की भावना प्रधान हो और विश्व में प्राणी प्रेम से एक दूसरे के निकट आए। इस आदर्श लक्ष्य अथवा मनोरथ को लेकर वह जहां अपने पुरूषार्थ पक्ष पर सुदृढ़ता पूर्वक चलता है, वहां वह निष्पक्ष रूप से समालोचक बनकर सुधार की चेष्टा करता है तथा स्थिति परिवर्तन के लिये प्रयत्नशील भी होता है इस प्रकार के संघर्ष से सही परूषार्थी निश्चेष्ट नहीं होता है और न निष्क्रियता को अपनाता है परंतु हाँ यदि इस संघर्ष में वह देखता है कि परिस्थितियों का आक्रमण, विफलताओं का विस्फोट और द्वन्द, द्वेष, दुर्भावनाओं और दुर्साधना की बाढ़ अत्यन्त प्रबल है, तो वह अपनी योगचर्या, आध्यात्मिक निष्ठ एवं द्विव्य गुणों के विकास के पुरूषार्थ को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये कुछ समय के लिये स्वयं को एक ओर सुरक्षित कर लेता है। सच्चा पुरूषार्थी वही है जो झुक सकता है वही सारी दुनिया को झुका सकता हैपुरूषार्थ की साधना से क्यों न हम सम्मानित जीवन लें। ।